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बाहर वालों के लिए बॉलीवुड इतना बेरहम है, तो सिर्फ घरानों या गुटों की वजह से नहीं बल्कि वहां जारी क्रूर प्रतियोगिता के कारण है

कोरोना से जन्मे वायरल मीम्स में मेरा पसंदीदा वह है, जिसमें एक मरीज डॉक्टर से पूछता है कि यह महामारी कब खत्म होगी? डॉक्टर जवाब देता है, ‘मैं नहीं जानता, मैं कोई पत्रकार नहीं हूं।’ इसी गंभीर विचार के साथ मैं यह बताने कि हिम्मत कर रहा हूं कि फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत हमें बॉलीवुड के बारे में क्या कुछ बताती है।

मैं अपने अनुभव से लिखता हूं। यूं मैंने फिल्मों के बारे में बेहद कम लिखा है लेकिन 2000-13 के बीच जब मैं इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप का सीईओ और एडिटर-इन-चीफ था, तब इसके फिल्म अवार्ड्स (स्क्रीन अवार्ड्स) से जुड़े होने के कारण मुझे इस तिलिस्मी दुनिया का अनुभव मिला था।

किसी भी ‘बाहर वाले’ के लिए यह बेहद हताश करने की हद तक अभेद्य साबित हो सकता है, जैसा कि सुशांत जैसे कामयाब शख्स के लिए भी शायद साबित हुआ। इसमें सब कुछ है- ग्लैमर, नाम, पैसा, जुनून, गुटबाजी, घराने, सबकुछ। बॉलीवुड में इतना कुछ है, तो फिर कमी क्या है? सुशांत जैसा प्रतिभाशाली और कामयाब ‘बाहरी’ यहां टूट क्यों जाता है? इसका जवाब एक ही शब्द में है: इज्जत।

हालांकि, इसे बड़ी शान से एक ‘इंडस्ट्री’ कहते हैं लेकिन इसका कोई गुरुत्वाकर्षण केंद्र नहीं है क्योंकि वहां किसी व्यक्ति, संस्था-संगठन, सरकार, मीडिया, किसी की भी इज्जत नहीं है। हर कोई या तो प्रतिद्वंद्वी है या दोस्त। वह बेहद अकेलेपन की सबसे स्वार्थी दुनिया है। बाहर वालों के लिए बॉलीवुड इतना बेरहम है, तो यह सिर्फ घरानों या गुटों की वजह से नहीं है। असल में वहां जारी क्रूर प्रतियोगिता के खेल में न कोई अंपायर है, न कोई चेतावनी की सीटी बजाने वाला है, न कोई बीच-बचाव करके सुलह कराने वाला है।

स्क्रीन अवार्ड्स के मामले में मेरी मुख्य जिम्मेदारी होती थी कि मैं जूरी गठित करवाकर उसे स्वतंत्र होकर काम करने दूं। एक्सप्रेस ग्रुप के प्रबंधकों या मालिकों से हमें कभी कोई ‘सुझाव’ देने वाला फोन नहीं आया। लेकिन, पुरस्कार पाने वालों की लिस्ट आते ही दबाव पड़ने लगता। अवार्ड के कार्यक्रम में कोई स्टार आएगा या नहीं, यह इस पर निर्भर होगा कि उसे कोई पुरस्कार मिल रहा है या नहीं।

अगर हम अवार्ड की व्यवस्था नहीं करते (जो हमने कभी नहीं की), तो केवल वह स्टार ही नहीं बल्कि उसका पूरा गुट या घराना बायकॉट कर देता था। इसका पहला अनुभव हमें शायद 2004 में मिला, जब ऐसे ही एक असंतोष के कारण बच्चन घराने ने बायकॉट किया था। इस तरह की घटना हर साल होती रही। 2011 के समारोह में सबसे हिट फिल्म ‘माइ नेम इज़ खान’ को किसी कैटेगरी में नॉमिनेट नहीं किया गया।

जूरी के अध्यक्ष सम्माननीय अमोल पालेकर थे। तीन दिन पहले बायकॉट की धमकी उभरी। करन जौहर मानने को तैयार नहीं थे कि जूरी को वह फिल्म किसी अवार्ड के काबिल नहीं लगी। मुझे ऐसे तर्क दिए गए कि पालेकर को ‘साल की हिट फिल्में’ देने वाले नापसंद हैं। उन्होंने अनुराग कश्यप की ‘मामूली-सी फिल्म’ ‘उड़ान’ को चुनने की हिम्मत कैसे की।

2012 में बेस्ट फिल्म का अवार्ड विद्या बालन स्टारर ‘डर्टी पिक्चर’ और मल्टीस्टारर ‘ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा’ को संयुक्त रूप से दिया गया। अपने विवेक से जूरी ने सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का अवार्ड ‘ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा’ की जोया अख्तर के बदले ‘डर्टी पिक्चर’ के मिलन लूथरा को घोषित कर दिया। अवार्ड के दिन ‘ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा’ के कास्ट और क्रू ने बायकॉट की घोषणा कर दी।

उस शाम हताशा में मैंने जावेद अख्तर तक को गुजारिश करने के लिए फोन कर दिया। उधर से फरहान ने जवाब दिया। वे रूठे-रूठे आए और कुछ मिनट में चले गए। आखिर हमें अपने एक कर्मचारी को फिल्म की ओर से अवार्ड लेने के लिए भेजना पड़ा।

2007 में ह्रितिक रोशन को ‘कृष’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का अवार्ड देने का फैसला किया गया था। उनसे मंच पर कार्यक्रम देने का भी करार था। समारोह से एक घंटे पहले उनका फोन आया कि वे आकर मंच पर कार्यक्रम तो पेश करेंगे मगर अवार्ड नहीं लेंगे क्योंकि वे उस ‘जूरी को कैसे इज्जत बख्श सकते हैं, जिसने उनके पिता की काबिलियत को मान्यता नहीं दी?’

उनके पिता राकेश रोशन उस फिल्म के निर्देशक थे। ह्रितिक अंततः मान गए। इसी तरह, 2012 में कैटरीना कैफ ने शो से कुछ मिनट पहले ही बखेड़ा खड़ा कर दिया क्योंकि उन्हें अवार्ड नहीं दिया गया था। मुझे उनकी वैन में ले जाया गया। वे अचानक फट पड़ीं, मुझे हमेशा क्यों बुला लेते हैं और कोई अवार्ड नहीं दिया जाता? उनकी आंखों से आंसू बह चले थे।

आखिर हमने ‘पॉपुलर चॉइस’ नाम का एक अवार्ड ईजाद किया। मैं यह सब इसलिए बता रहा हूं कि आपको अंदाजा मिल सके कि बिल्कुल बाहर का कोई आदमी वहां के माहौल में कितना अकेला और तनावग्रस्त महसूस कर सकता है। प्रायः अवार्ड स्थापित स्टारों, घरानों, गुटों की ताकत के बूते तय होते हैं।

चेतावनी की घंटी बजाने वाला कोई नहीं है। कोई बड़ा नेता नहीं है, संघ या अकादमी जैसी कोई संस्था नहीं है। कुछ पत्रकार हैं जो विश्वसनीयता से काम कर रहे हैं मगर कोई ‘व्हिसल ब्लोवर’ नहीं है। किसी भी बाहरी शख्स के लिए यह बहुत दुखदायी जगह है, क्योंकि पूरा सिस्टम आपके खिलाफ जा सकता है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)



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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’


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