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बड़े शहरों में कोरोना का इलाज मुश्किल हो रहा है, ऐसे में गांवों में क्या हाल होगा?, सरकारें इलाज मुफ्त क्यों नहीं करतीं?

कोरोना का संकट भारत में काफी देर से शुरु हुआ था। उम्मीद थी कि ज्यों ही गर्मी बढ़ी, कि कोरोना ठंडा पड़ जाएगा लेकिन अब उल्टा हो रहा है। मार्च और अप्रैल के मुकाबले जून में कोरोना की रफ्तार कई गुनी हो गई है। आशंका है कि जुलाई के अंत तक अकेले दिल्ली में कोरोना के मरीजों की संख्या पांच-साढ़े पांच लाख हो सकती है। शहरों में जो लोग कोरोना के शिकार हो रहे हैं, उनका पता तो आसानी से चल जाता है और लेकिन करोड़ों प्रवासी मजदूर और छोटे व्यापारी, जो अपने गांवों की तरफ दौड़े चले गए हैं, उनका क्या होगा?
शहरों में अब भी करोड़ों लोग ऐसे हैं, जो निर्धन या निम्न मध्यम वर्ग के हैं। वे डर के मारे अस्पताल ही नहीं जाते हैं। उनके पास रोजमर्रा के खाने-पीने के लिए ही पैसे नहीं होते। वे जांच के लिए 4500 रु. कहां से देंगे? और फिर यदि भर्ती होना पड़े तो अस्पताल के कमरे और इलाज के पैसों की राशि उनके होश उड़ाने के लिए काफी है।

सरकारी अस्पतालों में खर्च कम होता है लेकिन कई लोगों ने बताया कि वे किसी बूचड़खाने से कम नहीं हैं, हालांकि जो भी डाॅक्टर और नर्स वहां सेवा कर रहे हैं, वे किसी फरिश्ते से भी ज्यादा उदार और साहसी हैं। सरकारी अस्पताल संतोषजनक सेवाएं दे सकें, इसके लिए केंद्र व राज्य सरकारें भरपूर कोशिश कर रही हैं लेकिन इस आपातकाल में भारत क्या, दुनिया के संपन्न देशों के अस्पताल भी ढेर हो गए हैं। बड़े शहरों में तो पत्रकारों, नेताओं और अधिकारियों के डर के मारे काफी ठीक-ठाक इंतजाम की कोशिशें हो रही हैं लेकिन छोटे शहरों, कस्बों और गांवों से लापरवाही की ऐसी खबरें आ रही हैं कि उन्हें देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
जहां तक गैर-सरकारी अस्पतालों का सवाल है, वहां सेवाएं ठीक-ठाक हैं लेकिन पैसों के मामले में अराजकता है। रोज आने वाले रोगियों का आना लगभग बंद हो गया। दूसरे शब्दों में उनकी रोज़ाना आमदनी लगभग ठप्प है लेकिन डाॅक्टरों, नर्सों और अन्य कर्मचारियों का वेतन उन्हें देना ही पड़ रहा है। रख-रखाव का मोटा खर्च भी है। वे ये खर्च कहां से निकालेंगे?

उनके पास इस काम के लिए कोरोना के मरीज हैं। मेरे कई परिचितों ने बताया कि उनसे 10 से 15 लाख रु. तक अग्रिम रखा लिए गए। कई रोगियों ने बताया कि वे बिल्कुल ठीक-ठाक हैं लेकिन जांच करवाने गए तो उन्हें जबर्दस्ती कोरोना-मरीज कहकर आईसीयू में लिटा दिया गया। कुछ मरीजों ने बताया कि उन्हें सौ-दो सौ रु. रोज की दवा दी गई और उनसे लाख रु. झटक लिए गए। मरीज की हैसियत देखकर उसकी दवा की जा रही है। दूसरे शब्दों में, कुछ सम्मानजनक अपवादों को छोड़कर ज्यादातर अस्पताल लूटपाट के अड्डे बन गए हैं।
ऐसा नहीं है कि इन स्थितियों से सरकारें अनजान हैं। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह, स्वास्थ्य मंत्री डाॅ. हर्षवर्द्धन और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल खुद अस्पतालों में जाकर हालात का मुआइना कर रहे हैं। कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी के नेता कोरोना को लेकर केंद्र सरकार पर आए दिन हमला बोलते रहते हैं लेकिन यह संतोष का विषय है कि गृहमंत्री द्वारा आयोजित सर्वदलीय बैठक में कांग्रेस का प्रतिनिधि भी उपस्थित था। प्रधानमंत्री के संवाद में भी सभी पार्टियों के मुख्यमंत्री शामिल हो रहे हैं। यह बताता है कि हमारा लोकतंत्र कितना परिपक्व होता जा रहा है।
इन सरकारी बैठकों में कई अच्छे फैसले हुए। जैसे रेल्वे के 500 डिब्बों में 8000 बिस्तरों का इंतजाम किया जाएगा। गैर-सरकारी अस्पतालों को पूरी तरह कोरोना-अस्पताल घोषित करने की बजाय उनमें कोरोना के लिए 60% बिस्तर आरक्षित किए जाएंगे। मरीजों की संख्या जब लाखों में पहुंच जाएगी तो सरकार एनसीसी, एनएसएस और स्काउट गाइड संस्थाओं के स्वयंसेवकों को भी सेवा के लिए प्रेरित करेगी।

मैं पूछता हूं कि फौज के लाखों जवान कब काम आएंगे?
कोरोना की जांच संगीन क्षेत्रों में घर-घर होगी, यह सरकार का अच्छा संकल्प है लेकिन इसे लाखों तक रोज पहुंचाने का तरीका भी निकले। यह प्रारंभिक जांच मुंबई की ‘वन रुपी क्लीनिक’ संस्था सिर्फ 25 रु. में कर रही है। इसी प्रकार आयुष मंत्रालय अपने काढ़े को बेहतर बनाकर करोड़ों की संख्या में क्यों नहीं बटवाएं? अपनी कई चीन-यात्राओं के दौरान मैंने देखा था कि चीनी वैद्य रोगियों की प्रतिरोध-क्षमता बढ़ाने के लिए काढ़े का इस्तेमाल जमकर करते हैं।
इसी प्रकार मेरा आग्रह है कि केंद्र और राज्य सरकारें कोरोना के पूरे इलाज को मुफ्त क्यों नहीं कर देतीं ? साधारण देखभाल से भारत में ठीक होनेवाले मरीजों की संख्या बहुत ज्यादा है। गंभीर रोगियों की संख्या कम है। केवल कुछ हजार। यदि इन्हें वेंटिलेटर और आईसीयू में भी रखा जाए तो हर मरीज पर लाख-दो लाख रु. से ज्यादा खर्च नहीं होगा।

जो सरकार आर्थिक राहत के लिए 20 लाख करोड़ रु. दे सकती है, क्या वह इस आपातकाल में एक-डेढ़ लाख करोड़ रु. खर्च नहीं कर सकती? यदि वह यह करे तो निजी अस्पतालों की लूटपाट बंद हो जाएगी, सरकारी अस्पतालों में इलाज बेहतर होगा और कोरोना पर काबू पाना आसान होगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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डॉ. वेदप्रताप वैदिक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष


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