उपप्रवर्तक पीयूष मुनि महाराज ने श्री आत्म मनोहर जैन आराधना मंदिर में दैनिक प्रवचन में कहा कि व्यक्ति जब संसार में आता है तो वह मोह और ममता साथ ही लेकर आता है। ममता का भाव धीरे-धीरे बढ़ता जाता है और इसका क्षेत्र भी विस्तृत होता जाता है। स्वजनों, परिजनों, सुख-सामग्री तथा ऐश्वर्य-वैभव के प्रति भी मोह हो जाता है।
मोह के साथ दुःख भी जुड़ा रहता है। दुनिया मोह से नहीं, प्रेम से चलती है। जितना मोह होता है, उतनी ही अशांति होती है। मोह के कम होने पर ही मन आत्मा तथा परमात्मा में लीन हो सकता है। ममता से ही बंधन होता है। ममता ही मूल पाप का है। ज्ञान से ही ममता को दूर किया जा सकता है। शरीर धर्म का पहला साधन है। शरीर स्वस्थ होने पर ही धर्माराधन किया जा सकता है। मुनि ने कहा कि शरीर की रक्षा करना तो मानव का कर्त्तव्य है, परंतु रसासक्ति में अनाप-शनाप खाना तो अनुचित है।
शरीर की आसक्ति अनेक हिंसाओं को जन्म देती है। आसक्ति से किसी भी वस्तु का उपयोग करने वाले आसक्ति के कारण पाप के भागी होते हैं। इन्द्रियों के विषयों की आसक्ति पर संयम तथा विवेक का अंकुश रखना चाहिए। विषयों की आसक्ति व्यक्ति को चंचल बना देती है। विषयासक्त व्यक्ति को मर्यादा तथा विवेक का कोई भान नहीं रहता। विषयासक्ति से संस्कार खराब हो जाते हैं तथा व्यक्ति की भावनाएं और विचार भी बुरे हो जाते हैं। गलत विचार मन पर गलत प्रभाव छोड़ते हैं। विषयों की आसक्ति को रोकना विद्वान पुरूषों के लिए भी कठिन होता है और इंद्रियां मन को जबरदस्ती हर कर ले जाती है। इसलिए आसक्ति को छोड़ कर निरा सक्त भाव से जीवन गुजरे।
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